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  • पाकिस्‍तानी सेना के गढ़ रावलपिंडी से मिट गई हिंदू विरासत, कभी बहुसंख्यक थे, अब अस्तित्व भी खत्म, 39 मंदिरों में अब सिर्फ 3 बाकी

    इस्लामाबाद: पाकिस्तान का रावलपिंडी एक वक्त हिंदुओं का शहर हुआ करता था, मंदिरों की कोई कमी नहीं थी, लेकिन अब इस शहर की हिंदू पहचान लगभग मिट चुकी है। रावलपिंडी शहर का इतिहास करीब एक हजार सालों से ज्यादा का रहा है और एक वक्त ये हिंदू सभ्यता का केन्द्र हुआ करता था। उस वक्त


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    By Azad Hind Desk दिसम्बर 16, 2025
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    इस्लामाबाद: पाकिस्तान का रावलपिंडी एक वक्त हिंदुओं का शहर हुआ करता था, मंदिरों की कोई कमी नहीं थी, लेकिन अब इस शहर की हिंदू पहचान लगभग मिट चुकी है। रावलपिंडी शहर का इतिहास करीब एक हजार सालों से ज्यादा का रहा है और एक वक्त ये हिंदू सभ्यता का केन्द्र हुआ करता था। उस वक्त यहां रहने वाले हिन्दुओं को अगर कोई कहता कि तुम्हारा अस्तित्व इस शहर से मिटा दिया जाएगा, वो तो उसी तरह से हंसते और ऐसा दावा करने वालों का मजाक उड़ाते, जैसा आज कुछ लोग करते हैं। 1947 से पहले यह शहर मंदिरों, धर्मशालाओं और हिंदू बहुल मोहल्लों से भरा था। पाकिस्तानी अखबार द ट्रिब्यून की रिपोर्ट के मुताबिक 1943 की जनगणना के मुताबिक, रावलपिंडी में 82,178 हिंदू, 47,963 सिख और सिर्फ 22,461 मुस्लिम रहते थे।

    उस समय रावलपिंडी में 39 मंदिर, 14 गुरुद्वारे, 12 श्मशान घाट और 11 धर्मशालाएं मौजूद थीं। डिंगी खोई, पुराना किला, जामिया मस्जिद रोड, नेहरू रोड (अब गजनी रोड), सद्दर और रेलवे रोड जैसे इलाके हिंदू आबादी के प्रमुख केंद्र थे। लेकिन 1947 के विभाजन के बाद हालात तेजी से बदले और हिंदू समुदाय के एक बड़े हिस्से को मार पीटकर भारत भगा दिया गया। हिंदुओं के जाने के बाद थोड़े बहुत सिख, जो बच गये थे, उन्हें इन इलाकों में बसाया गया। धीरे धीरे रावलपिंडी से पारसी समुदाय के लोगों को भी भगा दिया गया। पारसी समुदाय के कुछ लोग कराची तो ज्यादातर लोग भारत और ईरान भागकर चले गये। अब रावलपिंडी से पारसी आबादी पूरी तरह खत्म हो चुकी है।

    रावलपिंडी से मिटा दी गई हिंदू पहचान
    द ट्रिब्यून की रिपोर्ट के मुताबिक रावलपिंडी में आज की तारीख में सिर्फ 5 हजार 113 हिंदू बचे हैं, जबकि पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में सिर्फ 141 हिन्दू परिवार रहते हैं। रावलपिंडी में अब सिर्फ तीन मंदिर हैं, जहां पूजा होती है, जिनमें एक कृष्ण मंदिर (सदर इलाके में), वाल्मीकि मंदिर (ग्रेसी लाइन्स) और लाल कुर्ती मंदिर शामिल हैं। ये तीनों मंदिर सौ साल से ज्यादा पुराने हैं, इसीलिए अब ये भी जर्जर होने लगे हैं। इनके अलावा कल्याण दास मंदिर, देवी मंदिर (कोहाटी बाजार), और पुराना किला मंदिर को पूरी तरह से बंद कर दिया गया है। अब इन मंदिरों में पूजा करने की इजाजत नहीं है। इसके अलावा हिंदू समुदाय के लिए अभी कोई भी धर्मशाला या श्मशान घाट रावलपिंडी में नहीं है।

    हालांकि मेडिकल यूनिवर्सिटी के सामने, टीपू रोड के पास एक 80 साल पुराना श्मशान घाट जरूर है, लेकिन अब स्थानीय मुसलमानों ने इस श्मशान घाट में दाह संस्कार पर रोक लगा दी है। यहां अगर कभी दाह संस्कार होता भी है तो भारी पुलिस बल तैनात करना पड़ता है। 1947 से पहले, शहर में नौ बड़े हिंदू और सिख स्कूल चलते थे, जिनपर अब पाकिस्तान की सरकार ने कंट्रोल कर लिया है। करीब एक सदी तक रावलपिंडी पर राज करने वाला हिंदू समुदाय अब खत्म हो गया है और इस्लामिक देश पाकिस्तान में अब भला उनकी कौन सुनेगा!

    पहचान बचाने के लिए हिंदुओं का संघर्ष
    हिंदू-सिख वेलफेयर काउंसिल के अध्यक्ष सरदार हीरा लाल ने कहा कि मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए फंड की जरूरत है। उन्होंने कहा कि सबसे बड़ी समस्या श्मशान घाट का न होना है। उन्होंने द ट्रिब्यून से कहा कि “हम अनुरोध करते हैं कि शहर के बाहर 4-5 कनाल जमीन दी जाए जहां हम एक श्मशान घाट, एक धर्मशाला और पूजा के लिए एक छोटा मंदिर बना सकें। हम वफादार पाकिस्तानी हैं, हमारे पूर्वज यहीं पैदा हुए थे। 1947 के बाद, भारत ने आकर्षक ऑफर दिए थे, लेकिन हमने मना कर दिया। रावलपिंडी हमारी जन्मभूमि है। हम अपनी मिट्टी को नहीं छोड़ सकते।”

    वहीं, लाल कुर्ती मंदिर के संरक्षक और हिंदू-मुस्लिम-सिख यूनियन के अध्यक्ष ओम प्रकाश नारायण ने कहा कि समुदाय को 7-10 प्रतिशत नौकरी और शिक्षा कोटा दिया जाना चाहिए। उन्होंने मांग की कि बंद मंदिरों को फिर से खोला जाए और रखरखाव के लिए हिंदू समुदाय को सौंप दिया जाए। उन्होंने कहा कि मुस्लिम समुदाय ने, खासकर दिवाली और होली जैसे त्योहारों के दौरान, बहुत सम्मान और सहयोग दिखाया है। कुल मिलाकर रावलपिंडी की कभी समृद्ध हिंदू विरासत आज धीरे-धीरे इतिहास के पन्नों में सिमट गई है।

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