इंडस्ट्री की क्या गलती ?
हम सभी चाहते हैं कि प्रदूषण पर नियंत्रण हो। लेकिन हम अक्सर यही ढूंढ रहे होते हैं कि इसके लिए किसे दोषी ठहराएं। पहले तो पराली पर उंगली उठी। पराली का मौसम खत्म होते ही प्रदूषण में स्पष्ट कमी आ जानी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कभी निर्माण कार्य को दोषी ठहराया जाता है, कभी तंदूर को, कभी डीजल जनरेटर को, तो कभी गाड़ियों को।
चीन में लॉटरी से मिलती है कार
इन सभी कारणों में सच्चाई के अंश है, लेकिन कहीं हम एक ज्यादा गहरी और जटिल समस्या को बहुत सतही ढंग से तो नहीं देख रहे। हमें यह भरोसा दिलाया जाता है कि अब BS-6 वर्जन आ चुका है, जिससे कम प्रदूषण फैलता है। जब सड़कों पर गाड़ियों की संख्या ही बेतहाशा बढ़ रही हो, तो उत्सर्जन मानकों में मामूली सुधार ऊंट के मुंह में जीरे जैसा ही है। यहां सभी को कार के लिए उकसाया जा रहा है, जबकि चीन में कार लॉटरी से मिलती है।
चमत्कारी समाधान की तरह किया जा रहा पेश
इलेक्ट्रिक गाड़ियों को मानो किसी चमत्कारी समाधान की तरह पेश किया जा रहा है। तकनीकी प्रगति आवश्यक है, लेकिन ये कभी भी विवेक की जगह नहीं ले सकता। शासन और नीतियों में बदलाव अहम है, लेकिन सरकारें संस्कारों से भी नियंत्रित होती है।
उपभोक्ता बनकर पैदा करते हैं मांग
इंडस्ट्री को अक्सर जिम्मेदार ठहराया जाता है। लेकिन मांग तो हम पैदा करते हैं, उपभोक्ता बनकर। हम उपभोक्तावाद के उस दौर में जी रहे हैं, जहां हम खुद नहीं जानते कि हमें वास्तव में क्या चाहिए। बाजार हमें बताता है कि हमें क्या चाहिए। एक तरफ अधिक से अधिक उत्पाद बनाए जा रहे हैं, दूसरी तरफ अहसास कराया जा रहा है कि ये प्रॉडक्ट हमारे सुख, पहचान और सामाजिक हैसियत के लिए जरूरी है।
हमारे भीतर के खालीपन के प्रतीक
नतीजतन हम ऐसी चीजें खरीद लेते हैं, जिनका हम शायद ही कभी उपयोग करते हैं। अपने किचन में झांकिए। वॉर्डरोब में कपड़े देखिए। नया फोन देखिए। यही मानसिकता आगे चलकर जरूरत न होने पर भी एक से ज्यादा घर, गाड़ियां और लगातार अपग्रेड करने की प्रवृत्ति में बदल जाती है। ये सब हमारे भीतर के खालीपन के प्रतीक है।
जरूरत या चाहत ?
कोई कह सकता है कि डिमांड से अर्थव्यवस्था को लाभ होता है। जरा सूक्ष्मता से गहराई से सोचकर देखिएगा, ये लाभ कहीं सिर्फ अरबपतियों को खरबपति तो नहीं बना रहा ? बात विकास या सुविधा के खिलाफ नहीं है। असली चुनौती जरूरत और चाहत के बीच फर्क समझने की है। हमारे लिए सबसे जरूरी क्या है? हमारा अस्तित्व, जो अभी दांव पर है। चाहत वह है जो तुलना, ट्रेंड और दिखावे से जन्म ले।
ऐसे संभव नहीं प्रदूषण पर नियंत्रण
जब यह फर्क मिट जाता है, तो उपभोग की कोई सीमा नहीं रहती। किसी बंदिश का विरोध देख राजनीतिक वर्ग और इंडस्ट्री को लगता है कि हमारे लिए उपभोग बड़ा मुद्दा है, प्रदूषण नहीं। प्रदूषण पर नियंत्रण केवल नियमों, ईंधन या तकनीक से संभव नहीं है। इसके लिए संयम भी चाहिए। हमारी चेतना जागे तो कोई सरकार सो नहीं पाएगी, इंडस्ट्री हमें प्रॉडक्ट की तरह नहीं देख पाएगी।














