नेपाली नेता के दावे विपरीत हिमालयी देश में जमीनी हकीकत एवं तस्वीरें कुछ और अधिक जटिलता को बयां करती हैं। एक दशक लंबा माओवादी विद्रोह (1996-2006) और साल 2001 का शाही नरसंहार 1990 के बाद से नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता का लंबा दौर रहा है। किसी भी प्रधानमंत्री का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकना, साथ ही नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार, अवसरवादी गठबंधन और आर्थिक दुर्दशा ने आम लोगों का भरोसा राजनीतिक दलों से हिला दिया है। यही मोहभंग आज राजशाही और हिंदू राष्ट्र की अवधारणा को फिर से वैध राजनीतिक बहस का हिस्सा बना रहा है। नेपाल का साल 2015 का संविधान सामाजिक समावेश, धर्मनिरपेक्षता और शक्तियों के विकेंद्रीकरण का प्रतीक माना गया।
नेपाल के राजनीतिक असंतोष ने युवाओं को ऊर्जा दी
संघीय ढांचा और समानुपातिक प्रतिनिधित्व लोकतांत्रिक भागीदारी बढ़ाने के उद्देश्य से लागू किए गए। लेकिन आज नेपाल के एक बड़े वर्ग को लगता है कि इन ‘लोकतांत्रिक’ व्यवस्थाओं ने नई तरह के अभिजात्य वर्ग की सौदेबाजी को ही जन्म दिया है। इसका नतीजा रहा कि Nepokids के खिलाफ युवाओं का गुस्सा फूट गया। चरमराती अर्थव्यवस्था पर्याप्त रोजगार नहीं दे पा रही। लाखों युवा रोज़गार की तलाश में विदेश जाते हैं। सरकारें बार-बार बदलती हैं, विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव अलग एजेंडे पर लड़ते तो हैं लेकिन चुनाव बाद विचारधारा को त्याग कर गठजोड़ कर सरकार बना लेते हैं। इसका परिणाम रहा कि लोक कल्याण की नीतियां लागू ही नहीं हो सकीं, अर्थव्यवस्था पटरी पर ही नहीं आ सकी। ऊपर से भ्रष्टाचार के आरोप लगभग हर दल और सत्ता-साझेदारी के हर मॉडल का पीछा करते दिखाई देते हैं। नेपाल में व्यापक राजनीतिक असंतोष ने युवाओं को एक विस्फोटक ऊर्जा दे दी। युवाओं ने स्पष्ट कर दिया कि नई पीढ़ी लोकतांत्रिक सत्ता के प्रतिष्ठान से बुरी तरीके से निराश हो चुकी है और अब उसे केवल चुनावों से परे वास्तविक बदलाव चाहिए। अपने जीवन की गुणवत्ता में बदलाव चाहिए।
नेपाल में राजनीतिक दलों के प्रति बढ़ता अविश्वास
नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दलों पर सुशासन, आंतरिक लोकतंत्र और नैतिकता पर सवाल उठ रहे हैं। नेतृत्व अब भी सीमित व्यक्तित्वों के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है और अवसरवादी गठबंधन धीरे-धीरे नेपाल की राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बनते गए हैं। नेपाल के पारंपरिक राजनीतिक दल नेपाली कांग्रेस, नेकपा-यूएमएल, माओवादी केंद्र और अन्य आम नेपाली की आशाओं और आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर रहे। आज आम नेपाली यह प्रश्न पूछ रहा है कि क्या यही संस्थाएं स्वयं को और देश की स्थिति की सुधारने में सक्षम हैं।
हिंदू राष्ट्र का नेपाल में क्यों बढ़ रहा आकर्षण?
हिंदू राष्ट्र की मांग करने वाले समूहों का तर्क है कि धर्मनिरपेक्षता जनता की सहमति के बिना थोप दी गई और इससे नेपाल की पारंपरिक सांस्कृतिक पहचान कमजोर हुई। उनके लिए हिंदू राष्ट्र का अर्थ धार्मिक वर्चस्व से अधिक सांस्कृतिक आत्मगौरव है। इस तथ्य को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि जब लोकतांत्रिक व्यवस्था ठोस परिणाम नहीं दे पाती, तब पहचान-आधारित राजनीति स्वाभाविक रूप से मज़बूत होती है। हाल के वर्षों में राजशाही समर्थक रैलियां कई हिस्सों में दिखने लगी हैं। बहुत से लोग मानते हैं कि राजशाही के दौर में व्यवस्था और अनुशासन बेहतर थे। भले ही यह धारणा पूरी तरह वास्तविक न भी रही हो। वास्तव में यह समर्थन मौजूदा राजनीतिक मोहभंग का प्रतिबिंब है। जब वर्तमान बहुदलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था भरोसा पैदा नहीं कर सकी तब लोक अतीत को एक सुरक्षित विकल्प की तरह याद करने लगे है।
नेपाल में क्या आएगी राजशाही?
नेपाल आज एक निर्णायक मोड़ पर खड़ा है। सवाल यह नहीं कि वह राजशाही की ओर लौटेगा या हिंदू राष्ट्र बनेगा। असली सवाल यह है कि क्या मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था खुद को सुधार पाएंगी? यदि राजनीतिक दल पारदर्शिता, योग्यता-आधारित शासन, युवाओं के लिए अवसर और संस्थागत जवाबदेही की मांगों को ईमानदारी से आत्मसात करते हैं, तो लोकतंत्र और भी मज़बूत हो सकता है। लेकिन यदि आने वाले चुनाव केवल सत्ता-साझेदारी के नए समीकरण बनकर रह जाते हैं, तो जनता का अविश्वास और गहराएगा। ऐसे में अतीत के राजनीतिक प्रतीकों को नया जीवन मिलना लगभग तय है।
नेपाल आज केवल राजशाही बनाम गणराज्य या हिंदू राष्ट्र बनाम धर्मनिरपेक्षता के बीच नहीं खड़ा है। आज वह नेपाली जनता के विश्वास और अविश्वास के बीच खड़ा है। भट्टराई का विश्वास है कि राजशाही मर चुकी है। लेकिन राजनीति का इतिहास बताता है कि यदि लोकतंत्र विफल हो कर जनता में निराशा उत्पन्न करने लगे, तो मृत समझी जाने वाली संस्थाएं भी फिर से नया राजनीतिक जीवन पा सकती हैं। और अंत में वॉशिंगटन पोस्ट का 140 साल पुराना नारा नेपाल के राजनीतिक सिस्टम के बारे में सटीक बैठता है ‘Democracy Dies in Darkness’।
लेखक डॉक्टर महेंद्र कुमार सिंह, विदेश नीति विश्लेषक एवं सह-प्राध्यापक, राजनीतिक विज्ञान, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय। सहयोग शोध छात्र अखिलेंद्र कुमार सिंह और चंदा यादव















