क्यों बार बार मिट जाती थी हनुमान चालीसा
जब बार बार हनुमान चालीसा लिखने के बाद जब चालीसा पूरी न होकर मिट जाकी तो इस घटना से तुलसी दास जी बहुत व्याकुल हुए और वह हनुमानजी का आराधना करने लगें। उनकी श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न होकर तुलसी दास जी ने को हनुमानजी ने पूरी घटना बताई। तब हनुमानजी ने मुस्कुराते हुए कबा कि वह तो मैं ही मिटा रहा हूं। हनुमानजी के शब्द सुनकर तुलसी दास जी बहुत हैरान हुआ और हनुमानी के चरणों में गिर गए। तब तुलसी दास जी से हनुमानजी ने कहा कि अगर आपको प्रशंसा लिखनी है तो मेरे प्रभु राम की लिखिएं। हनुमान जी के ऐसे वचन सुनकर तुलसीदास को रामचरितमानस के अयोध्याकांड का पहला दोहा याद आया।
श्री गुरु चरण सरोज रज , निज मनु मुकुरु सुधारि।
वरनऊं रघुवर विमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरो पवन कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेश विकार॥
तुलसी दास जी ने यह दोहा हनुमान चालीसा की शुरुआत में लिख दिया तब हनुमानजी ने तुलसी दास जी से सवाल करते हुए पूछा कि मैं तो रघुवर (भगवान राम) नहीं हूं। फिर तुमने यह क्यों लिखा? तब तुलसीदास जी ने बड़े श्रद्धा भाव से उत्तर दिया कि आप और भगवान राम एक ही प्रसाद से ग्रहण करने से अवतरित हुए हैं। इसलिए आप भी रघुवर हीं हैं। तब उन्होंने सुवर्चला अप्सरा का श्राप और हनुमान जी के जन्म की अद्भूत कथा सुनाई
कैसा हुआ हनुमानजी का जन्म
एक सुवर्चला नाम की एक अप्सरा थी। जो ब्रह्माजी पर मोहित हो गई थी और ब्रह्माजी को जब यह बता पता चली तो वह बहुत ही क्रोधित हुए और उन्होंने सुर्वचला को श्राप दे दिया कि तुम गिद्ध बन जाओगी। जब सुवर्चला रोने लगी तो ब्रह्माजी को उसपर बड़ी दया आई। उन्होंने सुवर्चला से कहा कि जिस समय राजा दशरथ संतान प्राप्ति के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ कराएंगे तब उनकी तीन रानियों में प्रसाद वितरित किया जाएगा। तुम उसमें से कैकेयी के प्रसाद का भाग लेकर उड़ जाना। उसी समय माता अंजना भगवान शिव से संतान प्राप्ति के लिए प्रार्थना कर रही होंगी। तब तुम उस प्रसाद को माता अंजना के हाथों में गिरा देना। उस प्रसाद को ग्रहण करने के बाद माता अंजना को बहुत ही सुंदर और विद्वान पुत्र की प्राप्ति होगी। यही कारण है कि हनुमानजी का जन्म माता अंजना के गर्भ से हुआ। इस तरह हनुमानजी का भी रघुवंश से संबंध है। भगवान राम ने भी हनुमान जी को अपना भाई कहा था।
तुलसी दास जी कहते हैं कि श्रीराम ने हनुमान जी को अपना भाई बताते हुआ कहा था कि “तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।”
जिस समय सीता माता का अपहरण करके रावण उन्हें अशोक वाटिका लेकर पहुंचा तब माता जानकी को खोजते हुए हनुमान जी भी वहां पहुंचे थे। तब माता सीता ने भी उन्हें अपना पुत्र बना लिया था।
“अजर अमर गुननिधि सुत होहू, करहुं बहुत रघुनायक छोहू।”
माता सीता ने हनुमानजी के हाथों प्रभु राम के लिए माता सीता के संदेश लेकर पहुंचे थे तब प्रभु राम ने भी हनुमानजी को अपना पुत्र माना था।
“सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं, देखेउं करि विचार मन माहीं।”
तुलसीदास जी से सारी कथा जानने के बाद हनुमानजी प्रसन्न हो गए और उन्हें आशीर्वाद दिया। इसके बाद तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा का शुभारंभ और इस तरह हनुमान चालीसा पूर्ण हुई।
हनुमान चालीसा
दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निजमन मुकुरु सुधारि।
बरनउं रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि।।
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार।।
चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुं लोक उजागर।।
राम दूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा।।
महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी।।
कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुण्डल कुँचित केसा।।
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजे।
कांधे मूंज जनेउ साजे।।
शंकर सुवन केसरी नंदन।
तेज प्रताप महा जग वंदन।।
बिद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर।।
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया।।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा।।
भीम रूप धरि असुर संहारे।
रामचन्द्र के काज संवारे।।
लाय सजीवन लखन जियाये।
श्री रघुबीर हरषि उर लाये।।
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।।
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कण्ठ लगावैं।।
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा।।
जम कुबेर दिगपाल जहां ते।
कबि कोबिद कहि सके कहां ते।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा।।
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेश्वर भए सब जग जाना।।
जुग सहस्र जोजन पर भानु।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू।।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं।।
दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रच्छक काहू को डर ना।।
आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हांक तें कांपै।।
भूतपिसाच निकट नहिं आवै।
महाबीर जब नाम सुनावै।।
नासै रोग हरे सब पीरा।
जपत निरन्तर हनुमत बीरा।।
संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै।।
सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा।।
और मनोरथ जो कोई लावै।
सोई अमित जीवन फल पावै।।
चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा।।
साधु संत के तुम रखवारे।।
असुर निकन्दन राम दुलारे।।
अष्टसिद्धि नौ निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता।।
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा।।
तुह्मरे भजन राम को पावै।
जनम जनम के दुख बिसरावै।।
अंत काल रघुबर पुर जाई।
जहां जन्म हरिभक्त कहाई।।
और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई।।
संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा।।
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।।
जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बन्दि महा सुख होई।।
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा।।
तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महं डेरा।।
दोहा
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप।।















