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  • Saphala Ekadashi Vrat Katha 2025: सफला एकादशी व्रत कथा, इसके पाठ से सुखों से भर जाएगा जीवन, व्रत का मिलेगा पूर्ण फल

    सफला एकादशी व्रत कथा | Saphala Ekadashi Vrat Katha चम्पावती नामक एक पुरी है, यह कभी राजा माहिष्मत की राजधानी हुआ करती थी। राजर्षि माहिष्मत के 5 पुत्र थे। उनमें से ज्येष्ठ सदा पापकर्म में लगा रहता था। परस्त्रीगामी व बुरे आचरण वाला हुआ था। उसने पापकर्म में पिता के धन का नाश कर दिया।


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    By Azad Hind Desk दिसम्बर 15, 2025
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    सफला एकादशी व्रत कथा | Saphala Ekadashi Vrat Katha

    चम्पावती नामक एक पुरी है, यह कभी राजा माहिष्मत की राजधानी हुआ करती थी। राजर्षि माहिष्मत के 5 पुत्र थे। उनमें से ज्येष्ठ सदा पापकर्म में लगा रहता था। परस्त्रीगामी व बुरे आचरण वाला हुआ था। उसने पापकर्म में पिता के धन का नाश कर दिया। वह सदा दुराचार परायण और ब्राह्मणों का निन्दक का था। वह वैष्णवों और देवताओं की भी निंदा करता था। अपने पुत्र को इस प्रकार देखकर माहिष्मत ने राजकुमारों में उसका नाम लुंभक रखा। फिर, पिता और भाइयों ने मिलकर राज्य से बाहर कर दिया। इसके पश्चात, लुंभक नगर से निकलकर वन की ओर चला गया। वहां रहकर उस पापी ने समूचे का नगर का धन लूटा। एक दिन जब वह चोरी करने के लिए नगर में आया तब रात में पहरा दे रहे सिपाही ने उसे पकड़ लिया। किंतु, जब उसने अपने को माहिष्मत का पुत्र बताया तो सिपाहियों ने उसे जाने दिया। वह पापी वन में लौट गया और मांस तथा वृक्ष पर लगे फल खाकर और निर्वाह करने लगा। उसका विश्राम स्थान पीपल के वृक्ष के नीचे था। उस स्थान पर बहुत वर्षों पुराना पीपल लगा हुआ था। जिसे उस वन में महान देवता माना जाता था। उसी स्थान पर पापबुद्धि लुंभक निवास करता था।

    बहुत दिन बीतने के बाद, फिर एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव के कारण उस द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया। पौष माह में कृष्ण पक्ष की दशमी को पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फलों का सेवन किया और वस्त्रहीन होने के कारण पूरी रात जाड़े का कष्ट उठाया। उस समय न तो उसे नींद आई और न आराम मिल पाया। वह निष्माण-सा होने लगा था। अगले दिन सूर्योदय होने पर भी उस पापी को होश नहीं आया। इसी कारण ‘सफला’ एकादशी के दिन लुम्भक बेहोश पड़ा रहा। दोपहर का समय होने पर उसे चेतना मिली। फिर इधर-उधर अपनी दृष्टि डालकर वह आसन से उठ गया और लैंगड़े के प्रकार पैरों से बार-बार लड़खड़ाता हुआ वन के ओर जाने लगा। वहां वह भूख से दुर्बल और पीड़ित होता जा रहा था। राजन, उस समय लुम्भक बहुत से प्रकार के फल लेकर जैसे ही विश्राम स्थान पर वापस लौटा, वैसे ही सूर्यदेव अस्त हो गए। तब उसने वृक्ष की जड़ में बहुत से फल चुने। इसके पश्चात, निवेदन करते हुए कहा कि इन फलों से लक्ष्मीपति भगवन विष्णु संतुष्ट हो। ऐसा कहकर लुम्भक रातभर नहीं सोया। इस प्रकार उसने अनायास ही इस व्रत का पालन किया।

    उस समय एक सहसा आकाशवाणी हुई कि ‘राजकुमार, तुम ‘सफला’ एकादशी के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त कर पाओगे।’ बहुत अच्छा’ कहकर उसने उस वरदान को स्वीकार कर लिया। फिर, उसका रूप दिव्य हो गया और तभी से उसकी उत्तम बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गई। दिव्य आभूषणों की शोभा से संपन्न होने के बाद उसने अकण्टक राज्य प्राप्त कर लिया और 15 वर्षों तक उसका संचालन करता रहा। भगवान कृष्ण की कृपा से उस समय लुंभक के मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसके बड़े होने के पश्चात लुंभक ने तुरंत राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया। वह भगवान श्रीकृष्ण के समीप चला गया और वहां जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता है। राजन, इस विधि से जो भी मनुष्य सफला एकादशी का उत्तम व्रत करता है उसे इस लोक में सुख भोगकर मृत्यु के पश्चात मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस संसार में वे मनुष्य धन्य होते हैं जो ‘सफला एकादशी के व्रत में लगे रहते हैं। उनका जन्म सफल है। महाराज, इसकी महिमा को पढ़ने, सुनने और उसी अनुसार आचरण करने से मनुष्य को राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

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