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  • भारत के बाद ईरान ने भी तालिबान से की दोस्ती, मजबूरी या चालाक रणनीति?

    तेहरान/काबुल: भारत के बाद ईरान ने भी अफगानिस्तान के तालिबान शासकों से दोस्ती कर ली है। पिछले हफ्ते ईरान ने अफगानिस्तान पर एक क्षेत्रीय बैठक का आयोजन किया था, जिसमें पाकिस्तान, चीन, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और रूस के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। इस दौरान अपने भाषण में, ईरान के विदेश मंत्री ने अफगानिस्तान में


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    By Azad Hind Desk दिसम्बर 21, 2025
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    तेहरान/काबुल: भारत के बाद ईरान ने भी अफगानिस्तान के तालिबान शासकों से दोस्ती कर ली है। पिछले हफ्ते ईरान ने अफगानिस्तान पर एक क्षेत्रीय बैठक का आयोजन किया था, जिसमें पाकिस्तान, चीन, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और रूस के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया था। इस दौरान अपने भाषण में, ईरान के विदेश मंत्री ने अफगानिस्तान में स्थिरता को क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी बताया। ईरान के विदेश मंत्रालय की तरफ से जारी संयुक्त बयान में अफगानिस्तान में स्थिरता को मजबूत करने के महत्व पर जोर दिया गया है।

    ईरान का रुख उस दौर से बिल्कुल अलग है, जब 1990 के दशक में तालिबान और ईरान आमने-सामने थे और दोनों के रिश्ते हिंसा और अविश्वास से भरे थे। अगस्त 2021 में काबुल में सत्ता परिवर्तन के बाद आशंका थी कि अफगानिस्तान फिर गृहयुद्ध में डूब जाएगा, लेकिन तालिबान सरकार ने तेजी से देश पर नियंत्रण स्थापित कर लिया और बड़े पैमाने की आंतरिक लड़ाई को रोक दिया है। अफगानिस्तान के रिसर्चर जाहिद खलीली ने यूरेशियन टाइम्स में लिखा है कि ईरान के रूख में तालिबान को लेकर आया ये परिवर्तन ऐतिहासिक है।

    ईरान ने तालिबान के साथ की दोस्ती
    जाहिद खलीली ने लिखा है कि 1990 के दशक के दौरान तालिबान और नॉर्दर्न अलायंस के बीच जबरदस्त लड़ाई हुई थी। पुराना नॉर्दर्न अलायंस, जिसने अब अपना नाम बदलकर नेशनल रेजिस्टेंस फ्रंट कर लिया है, जिसके लीडर पूर्व सरदार अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद हैं, और जिनका मकसद तालिबान से सत्ता छीनकर वापस काबुल पर नियंत्रण करना है, अब उसकी अफगानिस्तान में कोई खास मौजूदगी नहीं बची है। लेकिन 1990 के दशक में ईरान ने तालिबान के विरोधियों का साथ दिया था। जाहिद खलीली के मुताबिक, उस समय ईरान ने बुर्हानुद्दीन रब्बानी और अहमद शाह मसूद के नेतृत्व वाली मुजाहिदीन सरकार और अफगान शिया समुदायों का समर्थन किया था।

    इस दौरान तालिबान ने काबुल में ईरान के डिप्लोमेट्स की हत्या कर दी थी, जिससे तालिबान और ईरान करीब करीब युद्ध के कगार पर पहुंच गये थे। 2001 में अमेरिका के अफगानिस्तान पर हमले के दौरान भी ईरान ने तालिबान का समर्थन नहीं किया और अमेरिका समर्थित नई सरकार के साथ सहयोग किया। लेकिन जैसे-जैसे अमेरिका-ईरान संबंध बिगड़ते गए और इराक पर अमेरिकी हमले के बाद क्षेत्रीय समीकरण बदले, तेहरान ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की वकालत शुरू कर दी। इसी दौरान ईरान ने तालिबान से संपर्क बढ़ाया और तालिबान के नेताओं के साथ बातचीत के दरवाजे खोल दिए। पिछले चार सालों में तालिबान और ईरान के बीच संबंध लगातार अच्छे ही रहे हैं। इसके अलावा राजनीतिक और आर्थिक सहयोग लगातार बढ़ रहा है।

    तालिबान को लेकर क्यों हुआ ईरान का हृदय परिवर्तन?
    जाहिद खलीली के मुताबिक, इसकी पहली वजह- ISIS के खतरे को देखते हुए ईरान ने अब तालिबान को समर्थन देना शुरू कर दिया है। तालिबान के सत्ता में आने के बाद अफगानिस्तान में ISIS की गतिविधियां काफी हद तक दब गईं हैं। संयुक्त राष्ट्र की कई रिपोर्ट्स में भी कहा गया है कि ISIS के हमलों में कमी आई है। ईरान का मानना है कि अगर ISIS को रोका नहीं गया तो ईरान में भी वो खतरे उत्पन्न करेगा।

    ISIS के अलावा ईरान के रूख में आए बदलाव का दूसरी बड़ी वजह – अफगान शरणार्थी हैं, जो कई सालों से ईरान में रह रहे हैं। ईरान चाहता है कि वो शरणार्थी वापस अफगानिस्तान जाएं। वहीं तीसरी बड़ी वजह अफगानिस्तान का बाजार है। आंकड़ों से पता चलता है कि 2024 में ईरान का अफगानिस्तान को निर्यात लगभग 3.143 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच हालिया तनाव का ईरान कारोबार में भी फायदा उठाना चाहता है। इसीलिए पाकिस्तान को कारोबार के फ्रंट पर ईरान से भी बड़ा झटका लगने की संभावना है।

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